चंद साँसें हैं मिरा रख़्त-ए-सफ़र ही कितना चाहिए ज़िंदगी करने को हुनर ही कितना चलो अच्छा ही हुआ मुफ़्त लुटा दी ये जिंस हम को मिलता सिला-ए-हुस्न-ए-नज़र ही कितना क्या पिघलता जो रग-ओ-पै में था यख़-बस्ता लहू वक़्त के जाम में था शोला-ए-तर ही कितना किस ख़ता पर ये उठाना पड़ी रातों की सलीब हम ने देखा था अभी ख़्वाब-ए-सहर ही कितना हम भी कुछ देर को चमके थे कि बस राख हुए सच तो ये है कि रम-ओ-रक़्स-ए-शरर ही कितना तर्ज़-ए-एहसास में नुदरत थी उधर ही कितनी फ़िक्र-ओ-जज़्बे में तवाज़ुन है इधर ही कितना दे दिए ख़ुसरव-ओ-शीरीं ने उसे मोड़ कई वर्ना यूँ फासला-ए-तेशा-ओ-सर ही कितना तेरा इरफ़ान तू क्या ख़ुद को न पहचान सका था मिरा दायरा-ए-इल्म-ओ-ख़बर ही कितना यक क़दम बेश नहीं शब की मसाफ़त लेकिन एक टूटे हुए तारे का सफ़र ही कितना ऐ 'फ़ज़ा' दामन-ए-अल्फ़ाज़ है अब भी ख़ाली था यहाँ शाख़-ए-मआ'नी पे समर ही कितना