चाँद सूरज शफ़क़ कहकशाँ ख़त्म-शुद अब उड़ूँ किस तरफ़ आसमाँ ख़त्म-शुद रेगज़ार-ए-यक़ीं ता-ब-हद्द-ए-नज़र सब्ज़ा-ज़ार-ए-ख़याल-ओ-गुमाँ ख़त्म-शुद फिर हुआ यूँ कि आँख एक दम खुल गई मुख़्तसर ये कि बस दास्ताँ ख़त्म-शुद फ़िक्र के सारे गुल-बूटे मुरझा गए ज़ेहन की सारी शादाबियाँ ख़त्म-शुद उस ने आते ही सब खिड़कियाँ खोल दीं दफ़अ'तन सर में था जो धुआँ ख़त्म-शुद रिश्ते-नाते सभी जूँ के तूँ हैं मगर इक तक़द्दुस जो था दरमियाँ ख़त्म-शुद ज़ेहन को अब निचोड़ूँ तो टपके ग़ज़ल थी कभी वो जो तब्-ए-रवाँ ख़त्म-शुद