चाँदनी-रात है तारों का समाँ बाक़ी है तुझ से मिल मिल के बिछड़ने का गुमाँ बाक़ी है अब तो बस नाम है या संग-ए-निशाँ बाक़ी है कैसी बस्ती है मकीं हैं न मकाँ बाक़ी है आतिश-ए-इश्क़ बुझे एक ज़माना गुज़रा राख के ढेर तले अब भी धुआँ बाक़ी है कितनी सदियों से तो सरगर्म-ए-अमल है दुनिया उस के बा-वस्फ़ मगर कार-ए-जहाँ बाक़ी है हर तरफ़ आम है इंसाँ की तबाही का चलन क्या कहीं दहर में अब जा-ए-अमाँ बाक़ी है