चराग़-ए-ज़ीस्त के दोनों सिरे जलाओ मत अगर जलाओ तो लौ इस क़दर बढ़ाओ मत इस आरज़ू में कि ज़िंदा उठा लिए जाओ ख़ुद अपने दोश पे अपनी सलीब उठाओ मत सुलग रहा है जो दिल वो भड़क भी सकता है क़रीब आओ पर इतने क़रीब आओ मत जो ज़ख़्म खाए हैं उन को सदा अज़ीज़ रखो जो तुम को भूल गया हो उसे भुलाओ मत जहाँ में कोई तो हो ए'तिबार के क़ाबिल वफ़ा-ए-दोस्त को अब और आज़माओ मत इसी तरह से मिली है हर इक को दाद-ए-हुनर जो संग आए उसे चूम लो गँवाओ मत