चराग़-ए-मोहब्बत जलाने लगे हैं अभी से क़दम डगमगाने लगे हैं ग़म-ए-ज़िंदगी जब सुनाने लगे हैं बनाने में हम को ज़माने लगे हैं बुझाने में जिस को ज़माने लगे हैं वहीं आग फिर से लगाने लगे हैं ज़रा आगे बढ़ के दिया इक जलाओ अंधेरे बहुत अब सताने लगे हैं नतीजा शराफ़त का होता यही है सभी आज उँगली उठाने लगे हैं