चराग़-ए-शौक़ जला रात के असर से निकल सफ़र न रोक तिलिस्मात-ए-रहगुज़र से निकल कभी तो दस्त-ए-हिनाई से लिख विसाल की रुत कभी तो शीशा-ए-जाँ टूटने के डर से निकल जवाज़ ढूँड न अपनी सदा बिखरने का हयात मोहर-ब-लब दस्त-ए-चारा-गर से निकल ज़रा सी वुसअ'त-ए-इदराक में न गुम हो जा इस इम्तिहाँ से गुज़र हैरत-ए-ख़बर से निकल तिरे ख़याल में हूँ शहर-ए-रफ़्तगाँ तू भी किसी खंडर से उभर अक्स-ए-बाम-ओ-दर से निकल ज़कात-ए-ख़्वाब में दे दी हैं मैं ने आँखें भी अब ऐ जहान-ए-दिगर हीता-ए-नज़र से निकल निगाह-ए-ज़र्द में उग सब्ज़ ख़्वाब की कोंपल गुलाब-ए-शाख़ फिर उजड़े हुए शजर से निकल बंधे हैं शाम सुतूनों से सुब्ह के तारे जमाल-ए-यार किसी नक़्श-ए-मोतबर से निकल फ़सील-ए-शहर पे अक्स-ए-शब-ए-तअस्सुफ़ है नजात-ए-ग़म की किरन खेमा-ए-सहर से निकल