चराग़ रख के दरीचों के रू-ब-रू मैं ने बना लिया है तिरा अक्स हू-बहू मैं ने किसी निगाह से इक लहर आने वाली है सुनी है रात समुंदर की गुफ़्तुगू मैं ने ये कौन आँख के ज़िंदाँ में क़ैद हो गया है ये किस के वास्ते दिल कर लिया लहू मैं ने नज़र वजूद तबस्सुम जुदा जुदा कर के बिखेर रक्खा है ख़ुद को ही चार-सू मैं ने कई बरस से सँभाला हुआ है 'मुस्तहसन' तुम्हारा ज़ख़्म किया ही नहीं रफ़ू मैं ने