चारों तरफ़ हैं ख़ार-ओ-ख़स दश्त में घर है बाग़ सा चोटी पे कोहसार की जलता है क्या चराग़ सा आब-ए-रवाँ की गूँज से शोरिश-ए-ख़ाक-ओ-बाद तक मैं ही हूँ नक़्श-ए-जावेदाँ मैं ही अदम-सुराग़ सा सुब्ह भी रेशा रेशा है शाम भी है रफ़ू-तलब सीना-ए-महताब भी वर्ना है दिल-ए-दाग़ सा बहस हुई न तब्सिरा शोर उठा न चुप लगी दिल की बिसात थी ही क्या टूट गया अयाग़ सा शे'र कहो तो चुप रहे कुछ न कहो तो चौंक उठे शहर में एक 'ज़ुबैर' है शाइ'र-ए-कम-दिमाग़ सा