चार-सू बारूद की बू चार-सू ख़ौफ़-ओ-हिरास बंद दरवाज़ों के पीछे मर्द-ओ-ज़न सब बद-हवास उस के वा'दों पर न कर ता'मीर आशा का महल रेत के टीले पे क्यों रखता है इस घर की असास सब अमीर-ए-शहर के ज़ुल्म-ओ-सितम से जाँ-ब-लब सब अमीर-ए-शहर के आगे मगर महव-ए-सिपास यूँ सियासी फ़ैसलों ने उम्र भर रौंदा हमें इस ज़मीन-ए-इल्म-ओ-फ़न में हम उगे जैसे कि घास अपने ही आ'माल से लिखते हैं हम अपना नसीब अपने काँधों पर उठा रक्खा है ख़ुद अपना क्रॉस आओ अपनाएँ मुरव्वत दोस्ती उन्स-ओ-वफ़ा आओ भर लें ज़िंदगी में रंग रस ख़ुशबू मिठास बढ़ गया उस पार ले कर नाव वो अपनी 'शबाब' मैं खड़ा ही रह गया तन्हा लब-ए-साहिल उदास