चश्मक-ज़नी में करती नहीं यार का लिहाज़ नर्गिस की आँख में भी नहीं है ज़रा लिहाज़ बे-गाली अब तो बात भी करते नहीं कभी वो इब्तिदा में करते थे बे-इंतिहा लिहाज़ तन्हा मैं और इतने वहाँ हैं मिरे रक़ीब नाज़-ओ-अदा ग़मज़ा-ओ-शर्म-ओ-हया लिहाज़ साक़ी की बे-रुख़ी की कहाँ ताब थी मगर पीर-ए-मुग़ाँ की रूह का करना पड़ा लिहाज़ क्या वस्फ़-ए-चश्म-ए-यार करूँ इस के सामने नर्गिस से है फ़क़त मुझे इक आँख का लिहाज़ हुर्मत बड़ी है उस की न कर हज्व इस क़दर लाज़िम है दुख़्त-ए-रज़ का तुझे वाइज़ा लिहाज़ निकली न ख़ुम से बज़्म-ए-जवानान-ए-मस्त में पीर-ए-मुग़ाँ का बिन्त-ए-इनब ने किया लिहाज़ फिर मुझ से इस तरह की न कीजेगा दिल-लगी ख़ैर उस घड़ी तो आप का मैं कर गया लिहाज़ बे-ख़ुद शराब-ए-शौक़ ने शब को ये कर दिया उन को रहा हिजाब न मुझ को रहा लिहाज़ क़ुर्बान इस हिजाब के इस शर्म के निसार इतना न आशिक़ों से कर ऐ मह-लक़ा लिहाज़ महजूब है मिज़ाज 'क़लक़' अपना इस क़दर करते हैं अपने ख़ुर्द का भी हम बुरा लिहाज़