चश्म-ए-क़ातिल हमें क्यूँकर न भला याद रहे मौत इंसान को लाज़िम है सदा याद रहे मेरा ख़ूँ है तिरे कूचे में बहा याद रहे ये बहा वो नहीं जिस का न बहा याद रहे कुश्ता-ए-ज़ुल्फ़ के मरक़द पे तू ऐ लैला-वश बेद-ए-मजनूँ ही लगा ता-कि पता याद रहे ख़ाकसारी है अजब वस्फ़ कि जूँ जूँ हो सिवा हो सफ़ा और दिल-ए-अहल-ए-सफ़ा याद रहे हो ये लब्बैक-ए-हरम या ये अज़ान-ए-मस्जिद मय-कशो क़ुलक़ुल-ए-मीना की सदा याद रहे याद उस वादा-फ़रामोश ने ग़ैरों से बदी याद कुछ कम तो न थी और सिवा याद रहे ख़त भी लिखते हैं तो लेते हैं ख़ताई काग़ज़ देखिए कब तक उन्हें मेरी ख़ता याद रहे दो वरक़ में कफ़-ए-हसरत के दो आलम का है इल्म सबक़-ए-इश्क़ अगर तुझ को दिला याद रहे क़त्ल-ए-आशिक़ पे कमर बाँधी है ऐ दिल उस ने पर ख़ुदा है कि उसे नाम मिरा याद रहे ताएर-ए-क़िबला-नुमा बन के कहा दिल ने मुझे कि तड़प कर यूँ ही मर जाएगा जा याद रहे जब ये दीं-दार हैं दुनिया की नमाज़ें पढ़ते काश उस वक़्त उन्हें नाम-ए-ख़ुदा याद रहे हम पे सौ बार जफ़ा हो तो रखो एक न याद भूल कर भी कभी होवे तो वफ़ा याद रहे महव इतना भी न हो इश्क़-ए-बुताँ में ऐ 'ज़ौक़' चाहिए बंदे को हर वक़्त ख़ुदा याद रहे