चेहरे पे दमक उठता है जब रंग-ए-हया और ऐसे में मज़ा देती है अपनी ही अदा और गर जाँ भी मिरी जाए तो बाँहों में तुम्हारी दिल में कोई ख़्वाहिश ही नहीं इस के सिवा और दर छोड़ के तेरा तो कहीं जा न सकूँगी काफ़िर तो नहीं हूँ जो बना लूँगी ख़ुदा और हर चंद कि घायल हूँ मगर साँस है बाक़ी जीने की मुझे दीजिए अब कोई सज़ा और लिखने हैं मुझे ख़्वाब के पन्नों पे उजाले आँखों में जला लूँगी 'समीना' मैं दिया और