छेड़ दें गर क़िस्सा-ए-ग़म शाम से कि रहेंगे सुब्ह तक आराम से चाहिए हम को कि बेदारी रहे आश्ना हूँ हश्र से अंजाम से जो बुलाता था वो शख़्स अब जा चुका काम अपना देखिए आराम से पा गए हम बे-गुनाही की सज़ा बच गए सौ बार के इल्ज़ाम से कट रही है ज़िंदगी अब दश्त में हम को क्या मतलब रहा हुक्काम से क्या ख़बर तुझ को कि कितना रोए हम छूट कर सय्याद तेरे दाम से बज़्म में 'फ़रहत' बड़े नाशाद थे मुँह पे रौनक़ आ गई इक नाम से