छेड़ के साज़-ए-ज़रगरी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा है रक़्स में यूँ कि तमाम शहर ही डूब चला है रक़्स में ये जो नशा है रक़्स का इक मिरी ज़ात तक नहीं कूज़ा-ब-कूज़ा गिल-ब-गिल साथ ख़ुदा है रक़्स में कोई किसी से क्या कहे कोई किसी की क्यूँ सुने! सब की नज़र है ताल पर सब की अना है रक़्स में हुस्न की अपनी इक नुमू इश्क़ की अपनी हाव-हू एक हवा है रंग में एक हवा है रक़्स में कौन ये कह के चल दिया हो तिरी बस्तियों की ख़ैर आज हवा भी तेज़ है और दिया है रक़्स में कोई सवाद-ए-वक़्त पर कोई सुरूद-ए-ज़ात तक पाँव है सब का एक सा फिर भी जुदा है रक़्स में बुर्ज-ए-शही से देखना ऐसे फ़िशार-ए-वक़्त में ख़ाक-ब-सर ग़ज़ल-ब-लब कौन गदा है रक़्स में