छीन कर ख़्वाब मिरे मेरी तलब पूछते हैं रात भर नींद न आने का सबब पूछते हैं बारिशें आँख की मा'यूब न होती हों कहीं इश्क़ का चल किसी उजड़े से अदब पूछते हैं तीरा-रातों में भला कैसे जिया जाता है मेरे क़ातिल भी तो अब मुझ से ये ढब पूछते हैं अपने शजरे को भी हमराह लिए चल रस्मन जंग से क़ब्ल यहाँ नाम-ओ-नसब पूछते हैं चारासाज़ों ने तो अब सम्त बदल ली 'आमिर' आओ बाज़ार में बिकते हुए लब पूछते हैं