छोड़ेंगे गरेबाँ का न इक तार कभी हम बैठेंगे जुनूँ में तो न बेकार कभी हम रहते न इजाज़त के तलबगार कभी हम होते जो तिरे तालिब-ए-दीदार कभी हम पहनाएगा हम को वो गुल-ए-ज़ख़्म की बध्धी पहनाएँगे क़ातिल को जो इक हार कभी हम दीवाना-नवाज़ी है कि सर को दिए पत्थर छोड़ेंगे न अब दामन-ए-कोहसार कभी हम वल्लाह बुतों से नहीं करने के मोहब्बत रक्खेंगे न अब रिश्ता-ए-ज़ुन्नार कभी हम अन्क़ा हो जहाँ से मिरी जाँ नाम-ए-हुमा भी पाएँ जो तिरा साया-ए-दीवार कभी हम फाहे तो रहे दाग़ जुनूँ पर प-ए-जन्नत क्या डर है जो रखते नहीं दस्तार कभी हम तज्वीज़ किया कीजिएगा यूँ हैं सज़ाएँ या रहम के भी होंगे सज़ा-वार कभी हम फ़ुर्सत नहीं मिलती है ग़ज़ल कहने की ऐ मेहर पढ़ते हैं तब इस ढंग के अशआर कभी हम