छुप के उस ने जो ख़ुद-नुमाई की इंतिहा थी ये दिलरुबाई की माइल-ए-ग़म्ज़ा है वो चश्म-ए-सियाह अब नहीं ख़ैर पारसाई की हम से क्यूँकर वो आस्ताना छुटे मुद्दतों जिस पे जब्हा-साई की दिल ने बरसों ब-जुस्तुजू-ए-कमाल कूचा-ए-इश्क़ में गदाई की दाम से उन के छूटना तो कहाँ याँ हवस भी नहीं रिहाई की क्या किया ये कि अहल-ए-शौक़ के साथ तू ने की भी तो बेवफ़ाई की हो के नादिम वो बैठे हैं ख़ामोश सुल्ह में शान है लड़ाई की उस तग़ाफ़ुल-शिआर से 'हसरत' हम में ताक़त नहीं जुदाई की