चुप बैठा में अक्सर सोचता रहता हूँ आख़िर मैं क्यूँ इतना तन्हा तन्हा हूँ पहरों जिन की झील में खोया रहता था उन आँखों की याद में डूबा रहता हूँ तुम जो बातें भूल चुके हो मुद्दत से मैं तो उन में अब भी उलझा रहता हूँ तुम बदलो तो बदलो अपनी राह मगर मैं तो एक डगर पर चलता रहता हूँ सादा-पन कुछ नेकी ही का नाम नहीं देखने में तो मैं भी सीधा-सादा हूँ तेरे घर भी पहुँचा है ये शोर कभी या मैं ही अंजान सदाएँ सुनता हूँ घर की दीवारों में यूँ दिल तंग न हो ढूँढ मुझे मैं इस घर का दरवाज़ा हूँ जिस ने प्यार से देखा उस के साथ हुआ सच पूछो तो मैं भी अब तक बच्चा हूँ 'अंजुम' मैं क्यूँ दुनिया पर इल्ज़ाम रखूँ आँखें हैं तो फिर क्यूँ ठोकर खाता हूँ
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