चुप हो क्यूँ ऐ पयम्बरान-ए-क़लम बात छेड़ो कि गुज़रे शाम-ए-अलम चश्म-ए-हैरत से देखता है जहाँ किस मुसव्विर के शाहकार हैं हम हम निखारेंगे तेरा हुस्न-ओ-जमाल हम संवारेंगे तेरी ज़ुल्फ़ के ख़म बुत-शिकन मुतमइन न हों कि अभी ना-तराशीदा हैं हज़ारों सनम बा'द मरने के ऐ 'रज़ा' शायद काम आएँ हमारे नक़्श-ए-क़दम