चुप-चाप से इस दश्त में ज़ुल्मत का समाँ है पथराई हुई आँख में शो'ला भी कहाँ है सूखे हुए पत्तों को जो रौंदो तो सदा दें पिसते हुए इंसान के मुँह में तो ज़बाँ है अज़्मत की बुलंदी पे मैं जिस सम्त गया हूँ देखा है तिरे पाँव का पहले ही निशाँ है आँधी जो चली साथ उड़ा ले गई सब को क्या जानिए इस दश्त में अब कौन कहाँ है रोकें भी तो 'ख़ावर' उसे रोका नहीं जाता झोंके पे मुझे उम्र-ए-गुरेज़ाँ का गुमाँ है