चुपके से नाम ले के तुम्हारा कभी कभी दिल डूबने लगा तो उभारा कभी कभी हर-चंद अश्क-ए-यास जब उमडे तो पी गए चमका फ़लक पे एक सितारा कभी कभी मैं ने तो होंट सी लिए इस दिल को क्या करूँ बे-इख़्तियार तुम को पुकारा कभी कभी ज़हर-ए-अलम की और बढ़ाने को तल्ख़ियाँ बे-मेहरियों के साथ मुदारा कभी कभी रुस्वाइयों से दूर नहीं बे-क़रारियाँ दिल को हो काश सब्र का यारा कभी कभी क़तरे से एक मौज ये कहती निकल गई साहिल से मस्लहत है किनारा कभी कभी ऐ शाहिद-ए-जमाल कोई शक्ल है की हो तेरी नज़र से तेरा नज़ारा कभी कभी हंगाम-ए-गिर्या आह से नादाँ 'असर' हज़र उड़ता है अश्क जैसे शरारा कभी कभी