चुरा न आँख को साक़ी कि बादा-नोश हूँ मैं अभी तो फ़ैसला होता है एक साग़र पर मरीज़-ए-इश्क़ की हालत कभी न सँभलेगी मुझे तो छोड़ दे ऐ चारा-गर मुक़द्दर पर हमारे नाले भी थक थक के अब तो बैठ रहे गए वो दिन कि उठाते थे आसमाँ सर पर हमारे मय-कदा को छोड़ कर न जा ज़ाहिद मिलेगा क़तरा न कम-बख़्त हौज़-ए-कौसर पर गिला न हम ने किया 'शौक़' उस सितमगर से बलाएँ सब वो उठाईं जो आ पड़ीं सर पर