चुराए नज़रें कभी मुड़ के देखता भी है कि तीर तिरछी निगाहों के फेंकता भी है अजीब शख़्स है लिख कर फिर अपने दिल का वरक़ न जाने कौन सी वहशत में मोड़ता भी है तुम इस पे चल के मिरी ज़ात में चले आओ ये पुल-सिरात तुम्हारे लिए खुला भी है समझ के सोच के आना कि इस मोहब्बत में जहाँ सुकून है इस में तो रत-जगा भी है मैं इस हक़ीर को आख़िर ये कैसे समझाऊँ फ़क़त ख़ता ही नहीं इश्क़ मो'जिज़ा भी है मैं जिस को मार के ज़िंदा भी रह नहीं सकता वही ज़मीर है मेरा वही ख़ुदा भी है बड़े जतन से मिला हिज्र-ए-दाइमी मुझ को यही मरज़ है मिरा और यही दवा भी है भले ज़माने ने भर दी हों तल्ख़ियाँ मुझ में मिरी ज़बान पे उर्दू का ज़ाइक़ा भी है बड़े ही ग़ौर से सुनता है सारे शेर मगर ग़लत कहन पे मुझे बढ़ के टोकता भी है