क्यूँ न नैरंग-ए-जुनूँ पर कोई क़ुर्बां हो जाए घर वो सहरा कि बहार आए तो ज़िंदाँ हो जाए बर्क़ दम लेने को ठहरे तो रग-ए-जाँ हो जाए फ़ित्ना-ए-हश्र मुजस्सम हो तो इंसाँ हो जाए जौहर-ए-आईना दिल है वो तस्वीर है तू दिल वो आईना कि तू देख के हैराँ हो जाए ग़म वो राहत जिसे क़िस्मत के धनी पाते हैं दम वो मुश्किल है कि मौत आए तो आसाँ हो जाए इश्क़ वो कुफ़्र कि ईमान है दिल वालों का अक़्ल मजबूर वो काफ़िर जो मुसलमाँ हो जाए ज़र्रा वो राज़-ए-बयाबाँ है जो इफ़शा न हुआ दश्त-ए-वहशत है वो ज़र्रा जो बयाबाँ हो जाए ग़म-ए-महसूस वो बातिल जिसे कहते हैं मजाज़ दिल की हस्ती वो हक़ीक़त है जो उर्यां हो जाए ख़ुल्द मय-ख़ाने को कहते हैं ब-क़ौल-ए-वाइज़ काबा बुत-ख़ाने को कहते हैं जो वीराँ हो जाए सज्दा कहते हैं दर-ए-यार पे मर जाने को क़िबला वो सर है जो ख़ाक-ए-रह-ए-जानाँ हो जाए मौत वो दिन भी दिखाए मुझे जिस दिन 'फ़ानी' ज़िंदगी अपनी जफ़ाओं पे पशीमाँ हो जाए