दाग़-ए-दिल अपना किसी तरह दिखाए न बने और चाहूँ जो छुपाना तो छुपाए न बने दामन-ए-दिल में वो जब चाहें लगा दें इक आग हम अगर चाहें बुझाना तो बुझाए न बने तुम को मंज़ूर नहीं अपने तग़ाफ़ुल से गुरेज़ हम पे बन आई है ऐसी कि बनाए न बने उफ़ रे ये तीरा-नसीबी ये अँधेरे का फ़रोग़ दीप आँखों का जलाऊँ तो जलाए न बने हाए ये फ़ितरत-ए-हुस्न उफ़ वो मिज़ाज-ए-नाज़ुक नाज़ उठाना भी जो चाहूँ तो उठाए न बने सोच के दीजिए दीवाने को दामन की हवा ये भी मुमकिन है कि फिर होश में आए न बने नाज़ है ताक़त-ए-गुफ़्तार पे 'माहिर' को मगर दिल पे गुज़री है कुछ ऐसी कि सुनाए न बने