दामन तहें किए हुए सीना उभार के जाता है कोई क़र्ज़-ए-गुलिस्ताँ उतार के फूलों का हार रख दो गले से उतार के दिन लद गए गुलों के अब आए हैं ख़ार के ख़ामोश हो गया कोई आँखें पसार के लम्हे हुए न ख़त्म तिरे इंतिज़ार के वो क्या गए कि रूह-ए-गुलिस्ताँ निकल गई आई नहीं ख़िज़ाँ कि गए दिन बहार के हर एक गाम पर ये ख़बर-दार किए हैं एहसान हैं ये मुझ पे ग़म-ए-बे-शुमार के