दामान-ए-आरज़ू के किनारे समेटते मिलता है कब किसी को वो सब कुछ जो चाहिए होते हैं कुछ शरर भी छुपे राख में कहीं है देखने में सर्द सँभल कर कुरेदिये सब रौशनी के फूल तो खिलते ही बुझ गए कड़वा धुआँ अब आँखों से रो रो निकालिए मुश्किल-पसंद अपनी तबीअ'त है क्या करें चुन चुन के ख़ार राहों में ख़ुद हम ने धर दिए मिलता है सर्द-रूई से मह तुंद-ख़ू है मेहर अपने लिए किरन कोई अब किस से माँगिये हसरत से सू-ए-दर ये तके जाना ता बिके अन-थक के चोर आँखों को अब सोने दीजिए क़िंदील में शगूफ़ों के जलने लगी हवा रौशन हैं शाख़ शाख़ पे ख़ुश्बू भरे दिए हाँ मिल लिए थे उस से कहीं इत्तिफ़ाक़ से दुनिया ने कैसे कैसे फ़साने बना लिए 'बिल्क़ीस' लीजे होश के नाख़ुन बहुत हुआ जज़्बात को शुऊ'र की हद दे के रोकिए