दामान-ओ-कनार अश्क से कब तर न हुए आह दो चार भी आँसू मिरे गौहर न हुए आह जैसे कि दिल उन लाला-अज़ारों के हैं संगीं दिल चाहने वालों के भी पत्थर न हुए आह कहते हैं कि निकला है वो अब सैर-ए-चमन को क्या वक़्त है इस वक़्त मिरे पर न हुए आह ख़ूबाँ के तो हम फ़िदवी ओ बंदा भी कहाये लेकिन वो हमारे न हुए पर न हुए आह क्या तफ़रक़ा है जब कि गए हम तो न था वो और आया वो हम पास तो हम घर न हुए आह क्या नक़्स है उस ग़ैरत-ए-ख़ुर्शीद के आगे हम लाल तो कब होते हैं अख़गर न हुए आह दरिया भी बहे मय के पर ऐ बादा-परस्ताँ ये ख़ुश्क वो लब हैं कि कभी तर न हुए आह देख उस को 'नज़ीर' अब मुझे आता है यही रश्क क्यूँ हम भी उसी तरह के दिलबर न हुए आह