दानिशवरों के बस में ये रद्द-ए-अमल न था मैं ऐसी तेग़ ले के उठा जिस में फल न था क्या दर्द टूट टूट के बरसा है रात भर इतना ग़ुबार तो मिरे चेहरे पे कल न था पथराव कर रहा है वो ख़ुद अपनी ज़ात पर क्या दिल के मसअले का कोई और हल न था शाख़ें लदी हुई थीं तो पत्थर न था नसीब पत्थर पड़े मिले तो दरख़्तों में फल न था शब की हवा से हार गई मेरे दिल की आग यख़-बस्ता शहर में कोई रद्द-ओ-बदल न था अब एक एक हर्फ़ से छनती है रौशनी तुम से मिले न थे तो ये हुस्न-ए-ग़ज़ल न था 'क़ैसर'! ज़मीर-ए-वक़्त को देखा कुरेद के सदियाँ रखी थीं दोश पे मुट्ठी में पल न था