दानिस्ता कर के तर्क-ए-सफ़र रो पड़े हैं हम किस को हमारे ग़म की ख़बर रो पड़े हैं हम समझे थे अहल-ए-बज़्म कि हम मुस्कुराएँगे ये भी है इक फ़रेब-ए-नज़र रो पड़े हैं हम ज़िक्र-ए-ग़म-ए-हयात फिर इक बार छिड़ गया महफ़िल में तेरी बार-ए-दिगर रो पड़े हैं हम आँखों के सामने वही मंज़िल है दार की याद आई तेरी राहगुज़र रो पड़े हैं हम फ़स्ल-ए-बहार आई तो ये भी सितम हुआ हँसने लगे हैं ज़ख़्म-ए-जिगर रो पड़े हैं हम क्या क्या उमीदें ले के गुज़ारी थी शाम-ए-ग़म देखा मगर जो रंग-ए-सहर रो पड़े हैं हम अब 'ताज' मिल गया है हमें मंसब-ए-हयात है इंतिहा ख़ुशी की मगर रो पड़े हैं हम