दर आप का हम छोड़ के अब जाएँ कहाँ और है तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ में ख़ुद अपना ही ज़ियाँ और आसान उठाना न था कुछ बार-ए-ख़िलाफ़त जुज़ मेरे उठाता भी कोई बार-ए-गराँ और दिल है कि कोई चौब-ए-तर-ओ-ताज़ा-ओ-शादाब जब आग सुलगती है तो उठता है धुआँ और है फ़स्ल-ए-बहाराँ में चमन शो'ला-ब-दामाँ अब देखिए क्या होता है अंदाज़-ए-ख़िज़ाँ और आज़ादी-ए-गुफ़्तार-ओ-ख़यालात का इज़हार बर्बादी के अब इस से भी बढ़ के हैं निशाँ और जब शीशा-ए-दिल पर मिरे ज़ंगार है आता क्या कहिए चमकता है मिरा दाग़-ए-निहाँ और मैं शाख़-ए-समर-दार के मानिंद हूँ 'माहिर' मिलता हूँ किसी से तो वो करता है गुमाँ और