दर कोई जन्नत-ए-पिंदार का वा करता हूँ आईना देख के मैं हम्द-ओ-सना करता हूँ रात और दिन के किनारों के तअल्लुक़ की क़सम वक़्त मिलते हैं तो मिलने की दुआ करता हूँ वो तिरा ऊँची हवेली के क़फ़स में रहना याद आए तो परिंदों को रिहा करता हूँ एक लड़की के तआक़ुब में कई बरसों से नित-नई ज़ात के होटल में रहा करता हूँ पूछता रहता हूँ मौजों से गुहर की ख़बरें अश्क-ए-गुम-गश्ता का दरिया से पता करता हूँ मुझ से 'मंसूर' किसी ने तो ये पूछा होता नंगे पाँव मैं तिरे शहर में क्या करता हूँ