दर पे रहे ये दीदा-ए-गिर्यां तमाम-उम्र लेकिन बुझी न आतिश-ए-हिज्राँ तमाम-उम्र डाला है उस को जज़्ब-ए-मोहब्बत ने चाह में देखा न जिस ने था कभी ज़िंदाँ तमाम-उम्र वाक़े' में ये है हर्फ़-ए-शिकायत भी क्या कहें निकला न कोई जो मिरा अरमाँ तमाम-उम्र पामाल को भी हम ने किया अपना हम-जलीस छाना किया मैं ख़ाक-ए-बयाबाँ तमाम-उम्र रातों को मेरे वास्ते उठता है बार बार भूलूँगा दर्द-ए-दिल का न एहसाँ तमाम-उम्र क्या मुझ को अपनी याद से ख़िल्क़त ने खो दिया समझा किया मैं आप को इंसाँ तमाम-उम्र 'आरिफ़' लिखें हैं इस में मज़ामीन-ए-इंतिशार होवेगा जम्अ' मेरा न दीवाँ तमाम-उम्र