दर पे उस शोख़ के जब जा बैठा यार सब कहते हैं अच्छा बैठा ख़ूबी-ए-क़िस्मत-ए-क़ासिद देखो पास उस शोख़ के क्या जा बैठा है हबाब-ए-लब-ए-दरिया इंसाँ जब ज़रा सर को उठाया बैठा ज़ोफ़-ए-पीरी से बना नक़्श-ए-क़दम मैं वहीं का हुआ जिस जा बैठा सूरत-ए-बाद रहा सर-गरदाँ ख़ाक की तरह मैं उट्ठा बैठा पाँव फूले जो तिरे कूचे में काट के दस्त-ए-तमन्ना बैठा बहर-ए-हस्ती में हबाबों की तरह सैकड़ों बार मैं उट्ठा बैठा कब से तेरा फ़लक-ए-शो'बदा-बाज़ देखता हूँ मैं तमाशा बैठा सामने किस के झुकाया सर को किस लिए शैख़ तू उट्ठा बैठा न तो नाला है न अफ़्ग़ाँ ऐ दिल किस लिए चुप है अकेला बैठा ख़्वाब-ए-सैर-ए-चमन-ए-आलम है क्या दिल-ए-ज़ार है फूला बैठा दामन-ए-दिल पे लगा दाग़-ए-जुनूँ मुल्क पर इश्क़ का सिक्का बैठा नक़्द-ए-दिल था जो बिज़ाअ'त में मिरी इश्क़ में उस को भी खो-खा बैठा जो गया मुल्क-ए-अदम कौन गया उस के कूचे में जो बैठा बैठा दिल को है जज़्बा-ए-उल्फ़त शायद बक रहा है जो अकेला बैठा चल बसे 'मुंतही' सब यार तिरे तू यहाँ करता है अब क्या बैठा