डरा सकी न तवहहुम की तीरगी मुझ को मिली चराग़-ए-यक़ीं से वो रौशनी मुझ को हयात तपती रही ग़म के शो'ला-ज़ारों में किसी के प्यार की शबनम न मिल सकी मुझ को घटा स्याह सही रोक लूँ क़दम क्यूँकर घटा के पार बुलाती है चाँदनी मुझ को मिला है मुझ से उजाला किसी को अश्कों का किसी ने दी है तबस्सुम की चाँदनी मुझ को जला के दिल का दिया रास्ते सँवार दिए न दी जो चाँद-सितारों ने रौशनी मुझ को जला के 'शम'' जिगर आतिश-ए-शब-ए-हिज्राँ बता ही देती है मफ़हूम-ए-ज़िंदगी मुझ को