दर्द की नीली रगें तह से उभर आती हैं याद के ज़ख़्म में चिंगारियाँ दर आती हैं रोज़ परछाइयाँ यादों की परिंदे बन कर घर के पिछवाड़े के पीपल पे उतर आती हैं सूरतें बनती हैं चाहत की ये किस मिट्टी से बारहा मिट के भी ये बार-ए-दिगर आती हैं ऊदे ऊदे से सफ़ूरे की घनी टहनियों से याद की सुरमई किरनें सी गुज़र आती हैं रोज़ खिड़की से क़रीब आम के उस पेड़ के पास तूतियाँ चोंच में ले ले के सहर आती हैं इक विरासत की तरह गाँव की गुड़ सी बातें गठड़ियाँ बाँध के इस दिल के नगर आती हैं जितना भी चाहूँ दर-ए-यार से बच कर निकलूँ तोहमतें इतनी ज़ियादा मिरे सर आती हैं इतनी सी बात पे अच्छी नहीं शोरीदा-सरी शाम को चिड़ियाँ तो सब अपने ही घर आती हैं शर्म से उलझे दुपट्टे की जो खोलूँ गिर्हें दिल की 'नैनाँ' रगें सब खुलती नज़र आती हैं