दर्द की साकित नदी फिर से रवाँ होने को है मौज-ए-हैरत का तमाशा अब कहाँ होने को है जो गिराँ-बार-ए-समाअ'त था कभी सब के लिए अब वही कलिमा यहाँ हुस्न-ए-बयाँ होने को है क्यूँ करें वो अपनी क़िस्मत के सितारे की तलाश दस्तरस में जिन के सारा आसमाँ होने को है मुझ को उस मंज़िल से गुज़रे कितनी मुद्दत हो गई वक़्त मेरी जुस्तुजू में अब जहाँ होने को है तजरबे की आँच पर हर शय है यूँ आतश-बजाँ चाँदनी भी सूरत-ए-बर्क़-ए-तपाँ होने को है आसमाँ त्रिशूल और ग़ौरी से है सहमा हुआ फ़ाख़्ता का ज़िक्र ऐसे में कहाँ होने को है घर में है आब-ए-रवाँ तो बर्फ़ है मंजधार में कुछ न पूछो दहर में अब क्या कहाँ होने को है