दर्द पाया है तो इक दर्द आश्ना भी चाहिए पत्थरों के इस नगर में आइना भी चाहिए जिस की महफ़िल में सुनाई दीं क़यामत के हुरूफ़ एक ऐसा पैकर-ए-सौत-ओ-सदा भी चाहिए मैं तो वो इंसान हूँ जिस की वफ़ा से है ग़रज़ बाज़ लोगों को मगर दाद-ए-वफ़ा भी चाहिए ख़ाक-दाँ पर ज़ुल्म है बेचारगी है ख़ौफ़ है चर्ख़ पर इक मालिक-ए-अर्ज़-ओ-समाँ भी चाहिए इन दिनों यूँ तो है सब को संग हो जाने का शौक़ आइना-ख़ाने में रहने की जगह भी चाहिए रुत बदलने से नहीं 'बेदी' किसी को भी ग़रज़ सब को लेकिन कुछ अलग आब-ओ-हवा भी चाहिए