दर्द से किस तरह निबाह करूँ क्यों न अब दिल को वक़्फ़-ए-आह करूँ ऐ ग़ज़ल तुझ को गुनगुनाऊँ मैं और ख़ुद को यूँही तबाह करूँ कितनी दुश्वारियों से गुज़रा हूँ ज़ब्त कब तक मैं अपनी आह करूँ जोड़ के दिल का सिलसिला दिल से दिल में उन के मैं अपनी राह करूँ जब भी हो उन से सामना मेरा किस लिए रोऊँ क्यों मैं आह करूँ