दर्द-ए-फ़ुर्क़त से क़राबत सी हुई जाती है हाए ये भी मिरी आदत सी हुई जाती है उफ़ दम-ए-नज़अ भर आई हैं ये किस की आँखें मुझ को जीने की ज़रूरत सी हुई जाती है रश्क की ये ख़िरद-आशोबियाँ अल्लाह अल्लाह अपने साया से भी वहशत सी हुई जाती है हुस्न आमादा-ए-तकमील-ए-जफ़ा है ऐ दोस्त फिर मुझे अपनी ज़रूरत सी हुई जाती है जौर-ए-पैहम में ज़रा जिद्दतें पैदा कीजे लज़्ज़त-ए-ग़म मिरी आदत सी हुई जाती है बाइस-ए-सहव दो-आलम थी कभी बादा-कशी और ये अब तो इबादत सी हुई जाती है जब से समझा हूँ मैं तख़्लीक़ का मक़्सद 'बिस्मिल' ज़र्रे ज़र्रे से मोहब्बत सी हुई जाती है