दर्द-ए-ग़म-ए-फ़िराक से आँखें हैं अश्क-बार क्या रोने से होगी मुख़्तसर ज़हमत-ए-इंतिज़ार क्या ज़ख़्मों से चूर जो न हो सीना-ए-दाग़-दार क्या जिस में न हो हुजूम-ए-गुल कहिए उसे बहार क्या जिस ने जला के दिल मिरा हिज्र की शब मिटा दिया शमएँ जलाने आया है अब वो सर-ए-मज़ार क्या उठ गई जिस तरफ़ नज़र हश्र सा इक बपा हुआ उन की निगाह-ए-नाज़ है फ़ित्ना-ए-रोज़गार क्या मिट के भी उस की जुस्तुजू है जो जहाँ में चार-सू लेगा किसी जगह क़रार उड़ता हुआ ग़ुबार क्या हो चुकी ख़त्म शाम-ए-ग़म आँखों में आ चुका है दम अब भी मरीज़-ए-हिज्र को उन का है इंतिज़ार क्या जुर्म-ए-वफ़ा से अंदलीब-ए-गुल की नज़र में थी ज़लील काँटों के भी निगाह में होना पड़ेगा ख़्वार क्या कोशिश-ए-ज़ब्त लाख की फिर भी न अश्क थम सके जब्र न दिल पे हो सका ऐसा भी इख़्तियार क्या उन की नज़र के साथ ही सारा ज़माना फिर गया गर्दिश-ए-चश्म-ए-नाज़ है गर्दिश-ए-रोज़गार क्या बाद-ए-ख़िज़ाँ की मौज थी ग़ुंचा-ए-दिल के हक़ में सम मौसम-ए-गुल की भी हवा होगी न साज़गार क्या 'शो'ला' तफ़्ता-दिल मुझे आतिश-ए-इश्क़ से है काम मेरी नज़र में तूर की बर्क़-ए-शरारा-बार क्या