दर्द-ओ-ग़म को हस्ती-ए-कम-माया का हासिल समझ दर्स-गाह-ए-इश्क़ की ये रम्ज़ ऐ ग़ाफ़िल समझ जुस्तुजू-दर-जुस्तुजू आसान हर मुश्किल समझ ग़म न कर तदबीर को तक़दीर का हासिल समझ भूल कर भी कोई हर्फ़-ए-दिल-शिकन लब पर न ला हक़ तो ये है दूसरे के दिल को अपना दिल समझ राह-ए-उल्फ़त में जिसे गुम-गश्तगी हासिल हुई ऐसे ख़ुश-तक़दीर को आसूदा-ए-मंज़िल समझ लज़्ज़त-ए-लुत्फ़-ओ-तरब ग़म-आश्ना रहने में है जान को हर हाल में आज़ार के क़ाबिल समझ पा-ए-इस्तिक़्लाल में लग़्ज़िश न आ जाए कहीं अज़्म-ए-रासिख़ ही को अपना रहबर-ए-कामिल समझ अहद-ए-माज़ी को न रो तक़दीर का मातम न कर हाल की रूदाद ही को अपना मुस्तक़बिल समझ बारयाबी होश की बाज़ी लगा देने में है बारगाह-ए-हुस्न में हुशियार को ग़ाफ़िल समझ नाख़ुदा तो क्या ख़ुदा का भी सहारा छोड़ दे क़ुल्ज़ुम-ए-हस्ती में हर गिर्दाब को साहिल समझ अब ज़माना बार-ए-एहसाँ सर पे लेने का नहीं रुख़ ज़माने की हवा का देख ऐ ग़ाफ़िल समझ बाग़-ए-आलम की बहारें सब ख़िज़ाँ-अंजाम हैं ऐश-सामानी को वज्ह-ए-ख़स्तगी-ए-दिल समझ या तरीक़-ए-दोस्त-दारी पर भरोसा ही न कर या फ़रेब-ए-दोस्ती के सेहर को बातिल समझ इम्तियाज़-ए-जल्वा-ओ-पर्दा जहाँ रहता नहीं वो मक़ाम आए तो ज़ौक़-ए-दीद को कामिल समझ क्यूँ किसी बेगाना-वश पर दिल फ़िदा करता है तू ऐ 'रिशी' कुछ होश में आ अपने दिल को दिल समझ