दर-हक़ीक़त है ये साज़िश हादिसा कहने को है अब हमारे पास क्या इस के सिवा कहने को है क्या जुनूँ है राह-ए-मंज़िल में चुभे हर ख़ार को पाँव का हर आबला भी मर्हबा कहने को है हम को है तस्लीम तेरी बात लेकिन जान ले ये सरासर ज़िद है तेरी इल्तिजा कहने को है ये तिरे तीर-ए-नज़र उस पे तिरी ज़ुल्मी अदा दिल का हर इक ज़ख़्म तेरा शुक्रिया कहने को है अब तो ये तूफ़ाँ थमे या फिर मुक़द्दर साथ दे सब उम्मीदें हैं ख़ुदा से ना-ख़ुदा कहने को है अंजुमन में है तवज्जोह सब की यूँ तेरी तरफ़ 'राज़' तू क्या कह रहा है और क्या कहने को है