दरीदा देख कर कपड़े हमारे उदासी ने लिए बोसे हमारे हमारा दिल नहीं बस सर झुका था हुमकते रह गए सज्दे हमारे फिर इक बरपा हुई सहरा में मज्लिस तबर्रुक में बटे कुर्ते हमारे तो क्या सूझी थी हम को ख़ुद-कुशी की सदा देने लगे पंखे हमारे यक़ीनन वस्ल लाज़िम हो गया था थे दोनों जिस्म ही प्यासे हमारे