दरिया था साथ फिर भी अजब बेबसी रही सैराब हम हुए तो मगर तिश्नगी रही अहल-ए-सफ़र को जुस्तुजू मंज़िल पे ले गई गर्द-ए-सफ़र हमारी ये आवारगी रही झुकते हैं हम ग़रज़ के लिए रब के सामने बे-लौस अब किसी की कहाँ बंदगी रही दीवार क्या खड़ी हुई आँगन के दरमियाँ छत से उतरती धूप भी सहमी हुई रही आँखों में आ के मेरी जो इक ख़्वाब बस गया फिर इस के बाद ज़िंदगी बे-ख़्वाब सी रही 'रेशम' उलझ के रिश्तों के इस पेच-ओ-ख़म में ख़ुद अपनी ही ज़ात का मैं सिरा ढूँढती रही