दरिया-ए-आशिक़ी में जो थे घाट घाट साँप ले गए सपेरे वाँ से बहुत भर के बाट साँप अज़-बस-कि उस के ज़हर पे ग़ालिब है ज़हर-ए-इश्क़ मर जावे है वहीं तिरे आशिक़ को काट साँप दरिया में सर के बाल कोई धो गया मगर लहरों के हो रहे हैं जो यूँ बारा बाट साँप नामर्द से भला जटई ख़ाक फिर हुई समझा जब अपनी भैंस की रस्सी को जाट साँप तहरीक-ए-ज़ुल्फ़ से तिरी बाद-ए-सुमूम ने कहते हैं दश्त-ओ-दर में दिए बाट बाट साँप थे जिस ज़मीं पे संदल-ए-पा के तिरे निशाँ जीते हैं अब वहीं की ज़रा ख़ाक चाट साँप साहिल पे उस की ज'अद-ए-मुसलसल के अक्स से दरिया में धोबियों को नज़र आए पाट साँप बंगले में जा के ख़ाक रहे कोई 'मुसहफ़ी' कर दें हैं आदमी का यहाँ जी उचाट साँप