दरकार कुछ नहीं तिरी मेहर-ओ-वफ़ा के बाद कुछ और माँगता ही नहीं इस दुआ के बाद क़ुर्बान जाऊँ ऐसी सख़ावत पे मैं हुज़ूर क्या चाहिए जो पूछ रहे हैं अता के बाद कैसा फ़क़ीर हूँ मैं तिरी बारगाह का कश्कोल तोड़ देता हूँ अक्सर सदा के बाद कल भी ख़ुदा से पहले अधूरी थी काएनात कुछ भी नहीं है आज भी दुनिया ख़ुदा के बाद 'यासिर' सितम कि नाज़ है इंसाफ़ पर उसे पूछा मिरा क़ुसूर है जिस ने सज़ा के बाद