दरख़्त रूह के झूमे परिंद गाने लगे हमें उधर के मनाज़िर नज़र भी आने लगे ख़ुश-आमदीद का मंज़र ग़ुरूब-ए-शाम में था दर-ए-शफ़क़ पे फ़रिश्ते से मुस्कुराने लगे फ़िराक़ ओ वस्ल के मा-बैन ये समाँ जैसे उदास लय में कोई हम्द गुनगुनाने लगे मैं एक साअत-ए-बे-ख़ुद में छू गया था जिसे फिर उस को लफ़्ज़ तक आते हुए ज़माने लगे ख़बर के मोड़ पे संग-ए-निशाँ थी बे-ख़बरी ठिकाने आए मिरे होश या ठिकाने लगे मुहीब रास्ते सरहद की सम्त जाते हुए ज़रा सा और चले हम तो वो सुहाने लगे इक अपने-आप से मिलना था 'साज़' जिस के लिए रिक़ाबतें हुईं दरकार दोस्ताने लगे