दरमियाँ गर न तिरा वादा-ए-फ़र्दा होता किस को मंज़ूर ये ज़हर-ए-ग़म-ए-दुनिया होता क्या क़यामत है कि अब मैं भी नहीं वो भी नहीं देखना था तो उसे दूर से देखा होता कासा-ऐ-ज़ख़्म-तलब ले के चला हूँ ख़ाली संग-रेज़ा ही कोई आप ने फेंका होता फ़ल्सफ़ा सर-ब-गरेबाँ है बड़ी मुद्दत से कुछ न होता तो ख़ुदा जाने कि फिर क्या होता हम भी नौ-ख़ेज़ शुआ'ओं की बलाएँ लेते अपने ज़िंदाँ में अगर कोई दरीचा होता आप ने हाल-ए-दिल-ए-ज़ार तो पूछा लेकिन पूछना था तो कोई उस का मुदावा होता दस्त-ए-मुफ़्लिस से तही-तर है सफ़ीना 'अनवर' इस पहुँचने से तो साहिल पे न पहुँचा होता