दश्त-ए-अफ़्कार में सूखे हुए फूलों से मिले कल तिरी याद के मातूब रसूलों से मिले अपनी ही ज़ात के सहरा में सुलगते हुए लोग अपनी परछाईं से टकराए हय्यूलों से मिले गाँव की सम्त चली धूप दोशाला ओढ़े ताकि बाग़ों में ठिठुरते होए फूलों से मिले कौन उड़ते होए रंगों को गिरफ़्तार करे कौन आँखों में उतरती हुई धूलों से मिले इस भरे शहर में 'नश्तर' कोई ऐसा भी कहाँ रोज़ जो शाम में हम जैसे फ़ुज़ूलों से मिले